रत्नावली रामगोपाल भावुक नौ कब से हरको भी वहाँ आकर खड़ी हो गयी थी! पर वह रत्ना की सोच में व्यवधान नहीं बनना चाहती थी। सो, जब वे अपने सोच से बाहर आ गयी तो वह धीरे से बोली-‘भौजी, किताबें देख-देखकर आप मुझे देती जायें, मैं जमाती जाती हूँ।‘ रत्नावली ने एक हस्तलिखित पुस्तक उसके हाथ में दे दी। पुस्तक लेते हुये हरको बोली-‘भौजी मुझे भी पढना-लिखना सिखा दो ना।‘ यह सुनकर रत्नावली बोली-‘यह तुम्हारा अच्छा विचार है। लेकिन डॉँट खाना पड़ेगी। फिर कहोगी भौजी डॉँटती हैं।‘ हरको गम्भीर हो कर बोली-‘भौजी, गुरु को