पगडंडियाँ गवाह हैं

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पगडंडियाँ गवाह हैं। (कहानी)लेखक - अब्दुल ग़फ़्फ़ार _________दिन भर की कड़ी धूप में झुलसे हुए घास रात भर मख़मली शबनम में नहा कर तरो ताज़ा हो चुके थे। पगडंडी के दोनों तरफ़ तरबूज़ की हरी भरी लताएँ पसरी हुई थीं। खेतों में हरे लाल काले और चितकबरे तरबूज़ शांत मुद्रा में सिर उठाए नज़र आ रहे थे।बेला अपनी मड़ई में बर्तन मांझ रही थी। बाहर उसे कुछ आहट महसूस हुई। इसके पहले कि वो कुछ समझ पाती कंबल में लिपटे भालू जैसे दिखते चार पांच इंसान आए और बेला का मूंह दबाए खींचते हुए जंगलों की तरफ़ लेकर चले गए।कुछ देर बाद