अब और नहीं...

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अब और नहीं... कड़ाके की ठंड में चारों ओर घना कोहरा छाया हुआ था। हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा था। ऐसे में उसकी मज़बूरी को समझता हुआ वृद्ध रिक्शा चालक धीरे-धीरे उसे गंतव्य की ओर ले जा रहा था। उसकी आँखें नम हो आयीं, कितनी मेहनत करते हैं ये लोग। धुएँ के गुबार उड़ाते टैक्सी-ऑटो चालकों से ये साईकिल रिक्शा चलाने वाले मेहनतकश लोग उसे ज़्यादा अच्छे लगते हैं। यूँ शिकायत उन्हें किसी से भी नहीं है, सब अपनी रोजी-रोटी का जुगाड़ कर रहे हैं। ठंड से अकड़े हाथों में थर्मस और नाश्ते का टिफिन थामें, रिक्शे से उतर