बोनसाई के जंगल new द्वारा रीता गुप्ता रूही आज फिर फंस गई थी बोनसाई के जंगलों में। प्यास से उसका गला सूख रहा था, रूही ताजी हवा के लिए तरस रही थी। सांसें बोझिल हो रहीं थी, कदम लड़खड़ाने लगे थे। धुआँ– धूल से मानों दम घुटता सा महसूस हो रहा था;आँखों में जलन हो रही थी। फिज़ा में घुला भारीपन सीनें में जलन बन बरछियाँ चुभो रही थी। जंगल बोनसाई का ही था नाम मात्र की पत्तियाँ थी और टहनियाँ छोटी व घुमावदार। धरती तप रही थी पांवों में छालें पड़ गये थे, कहीं कोई पेड़ नहीं दिखाई दे रहा था। रुही ने सर