स्मृति की शीतल छाँह

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स्मृति की शीतल छाँह ------------------------- ये ज़िंदगी है जो कभी धूप ,कभी छाँह सी चलती रहती है |ये इंसान को कभी नरम तो कभी गरम थपेड़े मारती ही रहती है | कई बार मन में प्रश्न उठता है ---'ऐसा क्यों आख़िर?' भीतर से स्वयं ही उत्तर आता है ,'इसीलिए कि यह ज़िंदगी है | ' और हम चुपचाप,गुमसुम से अपने सामने सब कुछ होते हुए देखते रह जाते हैं ,कुछ भी कर सकने में स्वयं को अशक्त पाते हैं | न जाने कौनसी गली में किसकी ज़िंदगी की शाम हो जाए