गवाक्ष - 35

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गवाक्ष 35== प्रो. श्रेष्ठी ने अपनी पुस्तक का आरंभ किया था ; सत्य एवं असत्य, ’हाँ’ या ‘न’ के मध्य वृत्ताकार में अनगिनत वर्षों से घूमता-टकराता मन आज भी अनदेखी, अनजानी दहलीज़ पर मस्तिष्क रगड़ता दृष्टिगोचर होता है। भौतिक व आध्यात्मिक देह के परे शून्य में कहीं अदृष्टिगोचर संवेदनाओं- असंवेदनाओं, कोमल-कठोर भावनाओं के बीहड़ बनों से गुज़रते हुए ठिठककर विश्राम करने के लिए लालायित पाँच तत्वों से बने शरीर का वास्तव में मोल क्या है, उसे स्वयं भी ज्ञात नहीं ---व्यक्ति कहाँ से आता है ?कहाँ जाता है --? कुछ अता -पता नहीं चलता वह केवल एक इकाई भर है जो अंत में नहीं होगा । वह केवल यह समझने को बाध्य है