दास्तानगो प्रियंवद ६ एटिक में अब अंधेरा था। बुढ़िया ने चरखे पर काता हुआ सूत समेटना शुरू कर दिया था। अंधेरे में ही वामगुल स्टूल पर बैठ गया। पुल अभी बची हुयी चांदनी में था। दूरबीन से देखा उसने। सिपाहियों के द्घोड़े़ पहुंच चुके थे। द्घोड़ों के खुरों के नीचे इंसानी शरीर थे। चीखते हुए वे इधर-उधर भाग रहे थे। भागते हुए भी रुककर चावल बटोर रहे थे। सवारों ने कमर में पफंसे चाबुक निकालकर पफटकारना शुरू कर दिया था। हर चाबुक उनकी नंगी पीठों पर खून की एक लकीर छोड़ रहा था। पुल के नीचे से कुछ आदमी ऊपर