आपत्ति क्यों आख़िर ??

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आपत्ति क्यों आख़िर ??--------------------------- भ्रमित होने की कोई बात तो नहीं थी ,मन ही तो है ---हो जाता है भ्रमित ! होता ही रहता है ---दुःख -सुख के ऊंचे-नीचे टोलों के बीच फँसा मन कभी सुख से इतना सराबोर हो जाता है कि समझ ही नहीं आता हँसा जाय या रोया जाए ? सबके साथ ऐसा होता ही रहता है ,बीती यादें ले जाती हैं खींचकर और भ्रमित होते रहते हैं हम अपनी ही वर्जनाओं से ! स्वयं ही तो बनाते हैं हम अपने लिए ऐसे बंधन, जो लगता है हमें ले जाते हैं एक ऐसे लोक में