महाकवि भवभूति 11 भवभूति के कालप्रियनाथ्र दुर्गा आज पहली बार पार्वतीनन्दन जी के घर जा रही थी। चित्त में द्वन्द्व चल रहा था- कहीं मेरा विवाह पार्वतीनन्दन के साथ हो गया होता तो- अरे! हट, यह कैसे संभव था? चाहे प्राण ही चले जाते, मैं वहांँ एक पल भी नहीं रह सकती थी। आज उसी देहरी पर अपनी याचना लेकर जा रही हूँ। यही सोचते हुये दुर्गा ने उनका दरवाजा खटकाया। दरवाजा पावर्तीनन्दन ने ही खोला। दुर्गा को सामने देखकर आश्चर्य चकित रह गये। मुँह से शब्द निकले- अरे आप! दुर्गा जी।’ दुर्गा ने संक्षेप में उत्तर दिया-‘