बीता हुआ कल

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बीता हुआ कल गोपाल माथुर रात शाम की दहलीज पर आते आते ठिठक गई थी. शाम ने उसे रोक रखा था. पर केवल रात ही नहीं, बहुत कुछ ठिठका हुआ था. लग रहा था कि ठिठके हुए इस समय से अलग भी कोई अन्य समय था, जो भीतर आने के लिए दस्तक दे रहा था, लेकिन दरवाजा खोलने वाला कोई नहीं था. मुझे पता था कि देर सबेर मुझे हीे दरवाजा खोलना ही पड़ेगा. यहाँ आने से पहले मेरा मन उत्साह से भरा हुआ था. दस बरस बाद मैं एक बार फिर अपने पुराने दोस्तों से मिलूँगा, जो काॅलेज की