जो क र - विवेक मिश्र फिर मेट्रो आई रुकी और चली गई. समय से घर पहुँचने का एक मौका आया,रुका और आँखों के सामने से सरकता चला गया. एक दिन, एक घंटा जल्दी जाने की मोहलत नहीं मिल सकती. नौकरी है या गुलामी. न जाने भाबू का बुखार उतरा होगा कि नहीं. कितनी बार कहा है जशोदा से, 'थोड़ा अपने आप भी निकला करो घर से, देख लो आस-पास की जगहें जिससे बखत-जरूरत जा सको बाहर.' पर हमेशा एक ही बात, 'बाहर जाते डर लगता है, शहर है या समन्दर. अकेले घर से निकलने की बात सोचते ही जी कच्चा होने