धूप का गुलाब

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धूप का गुलाब ‘शकुन बेटा ! दो कप चाय बना लाओ’ ड्राइंगरूम तथा लाबी को पार करती हुई सहाय साहब की आवाज किचन में काम कर रही उनकी इकलौती बहू शकुन के कानों में पड़ी | शकुन शाम के भोजन की तैयारी में जुटी थी | गर्मी बढ़ गई थी | बहुत रात तक पसीने से लथपथ हो किचन में काम करते रहना शकुन को पसंद नहीं था इसलिए सूरज की किरण छिपने से पहले ही वह आधा काम निपटा देती थी और फिर आँगन में लगे मोगरा और हरसिंगार के पास बैठकर चितकबरे बादलों से सजे लाल होते आकाश