शहर का उदास स्कैच ओस की बूंदें पत्तों-टहनियों से रूख़सती लेतीं … टिपटिपाती हुई ज़मींदोज़ ... सुबह की धुंध के बीच आलीशान किंतु बुज़ुर्गियत झेल रहा अंग्रेजी जमाने का पांच कमरे का रिहायशी निवास...ट्रिन -ट्रिन ट्रिन -ट्रिन …सुबह से शाम तक फोन बजते रहते । कभी साहब खुद रिसीव करते कभी नौकरों के हवाले रिसीवर । रोज की तरह अलसुबह ...सुबह के पाँच बजे हैं...ट्रिन-ट्रिन ट्रिन-ट्रिन उठ पाने की जुगत भिड़ाने से पहले ही ,बीएसएनएल की जानी मानी धुन तकिए के नीचे से निकली । कुछ देख पाते कि फोन की घंटी के साथ रिसीवर हाथ में, “ हेलो