लुप्त होता इंद्रधनुष

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लुप्त होता इंद्रधनुष कैलाश बनवासी ...और सारी आठवीं कक्षा ठहाकों में जैसे नाचने लगी-हा-हा-हा! हो-हो-हो! ही-ही-ही...! मैं भीतर ही भीतर चोट खाए साँप की तिलमिलाहट से भर गया। मन जाने कैसा होने लगा था। इच्छा हो रही थी, धँस जाऊँ इस कमरे के जमीन के भीतर...बहुत भीतर...जहाँ ये ठहाके मेरा पीछा न कर सके। पर महसूस हुआ, चाहे पाताल ही में क्यों न धँस जाऊँ, ये मेरा पीछा नहीं छोड़ेंगे। सब छात्र मुझी पर खिलखिला रहे हैं। मैं सोचता हूँ, क्या सच बोलने पर ऐसा ही अपमानित होना पड़ता है? मेरी गलती शायद यही है कि मैंने सच कहा। सोनू