ग़ज़ल, कविता, शेर

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प्रेम-जल बरशा बादल से, दरख़्त की हर पत्तियां सुनहरी हों चली हैं।अंगड़ाई लिए नई कोंपलें उठती हैं, जमीं कितनी ताज़ा हो चली हैं।___Rajdeep Kotaएक रोज़ शादाब शामों से दूर जाना होगा।ज़िन्दगी का फ़िर कहां ठौर-ठिकाना होगा।रात की बर्फ़पोश टेहनी पर पिछले पहरउदास खौफज़दा बैठा कोई फसाना होगा।___Rajdeep Kotaबेवफ़ाई से उसकी दिल नहीं लगता कहीं ओरचाहने के लिए आलम मैं जैसे एक वोही शख़्स हों।__Rajdeep kotaमनोहर भव्य दर्शित-रहिमो करीम हैं मूरत उसकीछूंछे आभाहिन सन्नाटासन्न जीवन को हैं जरूरत उसकीफूल हैं मेरा जीवनमहक सुगंध लुभावनी अदाएं वो।ग्रीवा है मेरा जीवननिकलती प्रीतिकर रुचिर सदाएं वो।डग भरने दुश्वार हो गए हैंप्रियजन मेरे मुझसे दूर हो गए हैंजैसे