होने से न होने तक 32. नये तंत्र के साथ वह पहला साल ऐसे ही बीत गया था। शुरू शुरू में इस तरह की बातें सुनते तो मन बेहद आहत महसूस करने लगता। धीरे धीरे मिसेज़ चौधरी के इस तरह के वक्तव्यों को सुनने की आदत हम सब को पड़ने लगी थी, प्रबंधतंत्र से दूरी की भी। विद्यालय से अजब सा रिश्ता हो गया था। कालेज की गतिविधियों से न तो हम लोग पूरी तरह से जुड़ा हुआ ही महसूस कर पाते न पूरी तरह से कट ही पा रहें थे। कालेज की हवाओं में एक बेगानापन रच बस गया