थोड़ा हँस ले यार- सुभाष चन्दर

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आमतौर पर किसी व्यंग्य को पढ़ते वक्त हमारे ज़हन में उस व्यंग्य से जुड़े पात्रों को लेकर मन में कभी त्रासद परिस्थितियों की वजह से करुणा तो कभी क्षोभ वश कटुता उपजती है। ज़्यादा हुआ तो एक हल्की सी...महीन रेखा लिए एक छोटी सी मुस्कुराहट भी यदा कदा हमारे चेहरे पर भक्क से प्रदीप्त हो उठती है। मगर कई बार किसी किताब को पढ़ते वक्त किताब में आपकी नज़रों के सामने कोई ऐसा वाकया या ऐसा पल भी आ जाता है कि पढ़ना छोड़ बरबस आपकी हँसी छूट जाती है। अगर ऐसा कभी आपके साथ भी हुआ है तो समझिए