धनिया गोवर्धन यादव 1 भिनसारे उठ बैठती धनिया और बाउण्ड्री वाल से चिपकर खड़ी हो जाती। उसकी खोजी नजरें, पहाड़ों की गहराइयों में अपना गाँव खोजने में व्यस्त हो जातीं। गहरे नीले-भूरे रंग के धुंधलके की चादर ताने, जंगल अब तक सो रहा था। इक्का-दुक्का चिडिय़ा फरफरा कर इस झाड़ से उड़ती और दूसरी पर जा बैठती। सोचती, आज तो कड़ाके की ठंड है। पंखों को फुलाकर वह अपने शरीर को गर्माने लगती। काफी देर बाद सूरज उगा। उनींदा सा। अलसाया सा। थका-थका सा। पीलापन लिए हुए। जंगल में अब भी कोई हलचल नहीं हो रही थी। चारों तरफ सन्नाटा,