काले कोस, अंधेरी रातें (1) ‘महावीर एन्क्लेव’ पहुँचने के बाद मैं जरा ठहरी थी, वहाँ से कई संकरी गलियां मुख्य सड़क से नीचे उतर रही थीं। बेटी को गोद मेँ उठाए कच्चे से रास्ते पर लोगों से हाऊस नंबर पूछते–पूछते मैं आगे बढ़ रही थी। 20-30 गज के सटे-सटे मकानों वाले उस रिहायशी ईलाके मेँ एक था उसका घर, जो कि अब उसका नहीं था । वहाँ बस उसकी स्मृतियाँ थी... दरअसल समय को दिनों, घंटों और बरस में नहीं बांटकर देखा जा सकता। समय अच्छा हो तो पलक झपकते ही बीतता है और बुरा हो तो... मैं जानती हूँ