होने से न होने तक - 6

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होने से न होने तक 6. तीन दिन बाद मैं ग्यारह बजे से कुछ पहले ही चन्द्रा सहाय डिग्री कालेज पहुच गयी थी। समय पर कमरे के बाहर खड़े चपरासी को मैंने अपने नाम की पर्ची दे दी थी। शीघ्र ही मुझे अन्दर स बुला लिया गया था। प्रिंसिपल की कुर्सी के बगल की कुर्सी पर एक स्वस्थ से गौर वर्ण के सज्जन बैठे हैं। चेहरे पर रौब और भेदती हुई गहरी निगाहें। मैंने अपने आप को संयत करने की कोशिश की थी। पता नहीं क्यों लगा था जैसे मेरी ऑखें पसीजने लगी हों। मैंने अपने आप को समझाया था...ऐसा