ऊँट की पीठ “रकम लाए?” बस्तीपुर के अपने रेलवे क्वार्टर का दरवाज़ा जीजा खोलते हैं. रकम, मतलब, साठ हज़ार रुपए..... जो वे अनेक बार बाबूजी के मोबाइल पर अपने एस.एम.एस. से माँगे रहे..... बाबूजी के दफ़्तर के फ़ोन पर गिनाए रहे..... दस दिन पहले इधर से जीजी की प्रसूति निपटा कर अपने कस्बापुर के लिए विदा हो रही माँ को सुनाए रहे, ‘दोहती आपकी. कुसुम आपकी. फिर उसकी डिलीवरी के लिए उधार ली गयी यह रक़म भी तो आपके नामेबाकी में जाएगी.....’ “जीजी कहाँ हैं?” मैं पूछता हूँ. मेरे अन्दर एक अनजाना साहस जमा हो रहा है, एक नया बोध.