बाबुल मोरा... - 2

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बाबुल मोरा.... ज़किया ज़ुबैरी (2) सार्जेन्ट लिसा को हमदर्दी भरी नज़रों से पढता जा रहा था की कितनी गहरी चोट लगी है इसछोटी सी उम्र में। क्या यह इस दुःख से कभी उबर भी पाएगी? वह चुप चाप सुनना चाहता था लिसा के दुःख। सार्जेन्ट की टीम वापस आ गई थी। लिसा को वहां बैठा देख कर सब अन्दर वाले कमरे में चले गए। “लिसा, पानी पियोगी?” “हाँ... !” लिसा ने जल्दी से कहा। उसका गला सूख़ा जा रहा था मगर समझ में नहीं आ रहा था की कहाँ रुके और पानी कब मांगे। वह तो जल्दी से जल्दी मालूम करना चाह रही थी कि सार्जेन्ट बताए कि अब आगे वह क्या कार्यवाही करेगा? उसको क्या सज़ा देगा? क्या उसके डैडी फिर से वापस आ जाएँगे? हर क़दम पर डैडी को याद कर रही थी लिसा। सार्जेन्ट ने इस बीच अपनी टीम से भी सवाल कर लिया, “क्या रेड (छापे) से कुछ नतीजा भी निकला?” “हाँ एक लड़का पकड़ा गया है और दो भाग गए।” ग्राहम पार्क का रोज़ का यही तमाशा