बहीखाता - 16

  • 7k
  • 1
  • 2.4k

बहीखाता आत्मकथा : देविन्दर कौर अनुवाद : सुभाष नीरव 16 रिश्ता ज़िन्दगी के कई वर्ष गुज़र गए, घर का सपना अभी सपना ही था जिसको हक़ीकत की ज़मीन अभी नसीब नहीं हुई थी। इसका अर्थ यह नहीं कि मैंने इसके बारे में सोचा नहीं था। सोचा भी था और उस अहसास के मंदिर की घंटियाँ मेरे कानों में भी बजी थीं। उस खूबसूरत अहसास की महक को मैंने भी अपने आसपास देखा था। एक महक-सी मेरे चारों तरफ के वातावरण में भी बिखरी थी। मैं भी हवा में उड़ी थी। मैंने भी काँच की चूड़ियों की खनक सुनी थी। मुझे