एक जिंदगी - दो चाहतें - 48

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एक जिंदगी - दो चाहतें विनीता राहुरीकर अध्याय-48 ''न.... नहीं यहाँ कोई तहखाना नहीं है।" अकरम हड़बड़ा कर बोला। ''अबे तू तो यहाँ किसी के होने से भी इनकार कर रहा था फिर ऊपर वो तीन मुस्टन्डे क्या तेरे घर ने पैदा किये हरामजादे।" सूर्यवंशी चिल्लाया। विक्रम ने इशारा करके बाहर के भी चार पाँच लोगों को अंदर बुलवा लिया। लड़का अभी भी अपने पैर का अंगूठा जमीन पर मार रहा था। जवान तुरत-फुरत में जमीन पर बिछे गालीचे उठाने लगे। एक कमरा, दूसरा कमरा, तीसरे कमरे में पलंग पर दुबकी हुइ एक औरत डर से थर-थर कांप रही थी।