अपने–अपने ईश्वर

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अपने–अपने ईश्वर उस समय मैं शायद ढाई या तीन साल की बच्ची थी| जब घर के मंदिर में माँ को पूजा करते देख पूछती थी| मंदिर में रखी मूर्तियों को माँ स्नान करातीं, भोग लगा तीं, धूप –दीप दिखाती, और भजन गातीं तो मुझे बहुत अच्छा लगता| माँ के पास बैठ कर तोतली बोली से पूछती, " माँ ये कौन हैं?" और माँ मेरे सर पर हाथ फेर कर बताती थी, कि श्रेष्ठा ये भगवान् हैं, ये ही दुनिया में सब को सबकुछ देते हैं | “अच्छा माँ, टॉफी भी देते हैं” मैं माँ से पूछती | क्योंकि उस समय