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कैलेंडर मानों मुंह चिढ़ा रहा है; घोषणा कर रहा है कि मिली का जन्मदिन है. रहरहकर उसकी यादें मुझे घेरने लगी हैं. मैं अपने दिलोदिमाग से, उन्हें बुहारकर, हटा देना चाहती हूँ. किन्तु कैसे?! मिली की तरह, उसकी यादें भी हठी हैं और उनकी जकड़न... ऑक्टोपस के पंजों जैसी! “माँ...मैं चलूँ?” श्रीधर का प्रश्न मुझे चौंका देता है. मैं खुद को सहेजती हूँ. एक बड़ी सी मुस्कान, होठों पर चिपकाकर कहती हूँ, “ तुम्हारे सारे फ्रेंड्स ने विश कर दिया?” “अभी कहाँ माँ! आप तो जानती हैं...सबके अपने अलग कामधंधे हैं. आपके पास कोई फोन आया? अरे हाँ आपने तो