देस बिराना किस्त तेरह तो...मैं .. आखिर देस छोड़ कर परदेस में आ ही पहुंचा हूं। कब चाहा था मैंने - मुझे इस तरह से और इन वज़हों से घर और अपना देस छोड़ना पड़े। घर तो मेरा कभी रहा ही नहीं। दो-दो बार घर छूटा। गोल्डी ज़िंदगी में ताजा फुहार की तरह आकर जो तन-मन भिगो गयी थी उससे भी लगने लगा था, ज़िंदगी में अब सुख के पल बस आने ही वाले हैं, लेकिन वह सब भी छलावा ही साबित हुआ। अब मेरे सामने एक नया देश है, नये लोग और एकदम नया वातावरण है। एक नयी तरह