रेलगाड़ी में रीछ

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रेलगाड़ी में रीछ कैलाश बनवासी मैं इलाहाबाद जा रहा था।सारनाथ ए क्सप्रेस से। अकेले। अकेले यात्रा करना बड़ा ‘बोरिंग' काम है।उनके लिए तो और भी कष्टप्रद होता है जो स्वभाव से अंतर्मुखी होते हैं।जो वाचाल हैं उन्हें अगल—बगल के मुसाफ़िरों से परिचय प्राप्त करने में पल भी की देरी नहीं लगती।लेकिन दुर्भग्य से मैं अंतर्मुखी हूँ और दूसरों के सामने धीरे—धीरे खुल पाता हूँ। इसके बवाजूद मैंने अपने आरक्षित डिब्बे में,सामने की बर्थ वाले युवक से बातचीत शुरू करने में सफलता प्राप्त कर ली। इसके पीछे दो कारण् ा थे।ए क तो वह मेरा हमउम्र था,पच्चीस—छब्बीस के आसपास।दूसरा कारण् ा,जो