देखत जग बौराना, झूठे जग पतियाना………

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पांच सौ साल पहले कबीर ने साधु को पहचानने की यह निशानी बताई थी – “साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय, सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय॥” त्याग, संयम, सादगी और सहजता को साधुता की कसौटी मानने वाले कबीर को भारत में आने वाली सदियों में ‘साधु’ और ‘बाबा’ की बदल चुकी परिभाषा का इल्म नहीं रहा होगा। किसी विचार या किसी इच्छा को आगे बढ़ाना ‘क्रमागत उन्नति’ का हिस्सा है, यही एकमात्र रास्ता है शुद्धता के साथ उसे साकार करने का। इसमें समय की कोई क़ैद नहीं है, हो सकता है विचार को अपने अंतिम निखार तक पहुँचने