मुक्ति

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मौलश्री आज बेहद गमगीन थी। सांझ का सुरमई अंधेरा धीरे धीरे गहराने लगा था। जैसे जैसे रात्रि की कालिमा अपने पंख फैला रही थी, मौलश्री के अन्त:स्थल में अंतहीन निराशा का बियाबान शून्य पसरता जा रहा था। घर भर में मरघट का सा सन्नाटा छाया हुआ था। “उफ मृग, ये कैसा दु:ख दे दिया तुमने अपनी मौलश्री को। कल ही तो तुमने पापा को कितने विश्वास से आश्वासन दिया था, ‘‘ मेरे घर में मौलश्री की आंखों में कभी आंसू नहीं आएंगे, यकीन करिए।’’ और इतनी जल्दी तुम सब कुछ भूल बैठे”।कि अन्तर्मन के एक कोने से सोच उठी, ‘‘नहीं, नहीं,