एक जिंदगी - दो चाहतें - 19

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इसी तरह छह महीने बीते और परम फिर कलकत्ता पहुँचा। घर में वही दमघोंटू माहौल था। माँ अब भी अबोला ठाने थी। पिता चुप-चुप ही रहते। भाई सामने आने से कतराता। सुबह जल्दि घर से निकल जाता रात में पता नहीं कब वापस आता। माँ परम से बात नहीं करती लेकिन उसे सुना-सुनाकर दुनिया जहान का जलाकटा बोलती रहती। कभी अपना माथा पीटती, कभी किस्मत को कोसती। सारी जली बुझी बातों का सार बस परम के जनम की घड़ी को कोसना होता था। परम की पलकों की कोरें भीग जातीं।