जादू की छड़ी

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मैं उन दिनों अपनी दीदी के यहां गई थी। जीजाजी अॅाफिसर थे। गाड़ी बंगला मिला हुआ था। लिहाजा छुट्टियां बिताने की इससे बेहतर और कौन सी जगह हो सकती थी। दीदी शादी के बाद अफसरी मिजाज वाली बीवियों की तरह बन चुकी थी। दो ही दिनों में मैंने उनके मुंह से ’मिस सुनन्दा’ का बड़ा नाम सुना था। सुनन्दा का जिक्र होने पर, उनका फोन आने पर दीदी का बनाबनाया मूड़ एकदम चैपट हो जाता था। आखिर मैंने पूछ ही लिया, ’’दीदी, आखिर यह मोहतरमा हेेंै कौन?’’ ’’अरे तू नहीं जानती,’’ दीदी बताने लगीं, ’’होस्टल में मेरी रूममेट थी यह। पिता जमींदार थे। अकेली ह,ै न कोई भाई न बहन। अभी तक शादी नहीं की है...’’