झिरी - 2

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बत्ती फिर जला तेज़ी से वो दरवाज़े की ओर लपका। कुंडी खोल दरवाज़े को खींचा तो याद आया, वो तो बाहर से बन्द था। उसे पहली बार भाभी पर दिल से गुस्सा आया...। अपना तो मज़ाक हो गया, यहाँ जान पर बन आई हो जैसे...। ऐसा लग रहा था मानो हाथ-पैर कट गए हों..। उसने एहतियात से दरवाज़े को फिर खींचा...कुछ इस तरह कि आवाज़ न के बराबर हो...। हिलाने से किसी तरह अगर दरवाज़ा खुल जाए तो वो कोई इंतज़ाम भी करे...। अब अन्दर वो करे भी तो क्या...और अगर कुछ किया नहीं तो ये रात कैसे कटेगी...? ये क्या कोई रोज-रोज आने वाली रात है...?