जून ख़त्म होने को था। पर आसमान से जैसे आग बरस रही थी। बादलों का नामोनिशान तक न था। सुबह होती तो सूरज आग के गोले की तरह आ धमकता। किरणें तीर जैसी चुभने लगतीं। लोग गर्मी से त्रहि-त्रहि कर उठते। एक दिन कर्तार जी घर के पिछवाड़े बैठे कुछ बुदबुदा रहे थे। उसी समय मौलाना साहब वहाँ पहुँच गए। कर्तार जी को मगन देखकर वह एक ओर चुपचाप खड़े हो गए। कर्तार जी कपड़ों से बनी गुड्डा-गुडि़या लिए गुनगुना रहे थे--