कहानी ऐसे थोड़े न लिखी जाती है... - 2

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निर्मल बाहर क्या गया, मानो मेरी आत्मा ले गया...। दिन काटे नहीं कटता था...। माँ भी बहुत खालीपन महसूस करने लगी थी, पर अब मेरे ब्याह की चिन्ता उन्हें इस कदर सताने लगी थी कि उसकी माथापच्ची में उनका सारा खालीपन भर गया...। पर मैं क्या करती...? मैं तो शादी ही नहीं करना चाहती थी...। मुझे बस निर्मल का इंतज़ार था...। अपनी चिठ्ठी में उसने लिखा भी था, छः महीने की नौकरी के बाद उसे ऑफ़िस की तरफ़ से एक हफ़्ते की छुट्टी मिल जाएगी। उसे पता था कि उसकी चिठ्ठी घर में सब पढ़ेंगे, सो जो मैं पढ़ना चाहती थी, चाहते हुए भी वह वो सब नहीं लिख पाया...।