... कि हरदौल आते हैं

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हम विस्मय से सुनते हैं साँस थामकर। रात की ख़ामोशी को तोड़ते हुए दूर कहीं से मामी की आवाज़ गिरती है। वह काँच की तरह गिरती है और किरच-किरच पूरे कमरे में बिखर जाती है। चौदस और पूनम की चमकती रातों में चम्पावती का सत अब भी रोशन होता है। जंगल का चप्पा-चप्पा चाँद की दूधिया आब में दमकने लगता है। अब भी हरदौल आते हैं सफ़ेद-सफ्फाक घोड़े पर सवार। बीहड़ों को रौंदते हुए, नदी-नालों को छलाँगते, चट्टानों-पहाड़ों को फलाँगते ... तब इस उसर धरती पर इत्तर की खुशबू फ़ैल जाती है यहाँ से वहाँ तक। खुशबू जैसे साथ-साथ चलती है हरदौल के घोड़े के साथ। ऐसी खुशबू जो कभी किसी ने कहीं नहीं महसूसी. जिसका कोई सानी नहीं। खुशबू के साथ लोग सुनते हैं घोड़े के टापों की आवाजें भी।