आज पूरे बारह साल बाद इस कमरे के उस खुले हिस्से पर बैठी हूँ, जिसके लिए बरसों बाद भी कोई सही शब्द नहीं खोज पाई...। कुछ-कुछ छज्जे जैसा, पर छज्जा तो बिलकुल नहीं था वो...। छज्जे में तो आगे का कुछ हिस्सा ज़मीन से बिना किसी सीधे सहारे के पसरा होता है न, और यहाँ तो यह खुला भाग मेरे उस कमरे का ही एक हिस्सा था...जैसे बिना जाली वाली कोई खिड़की, ‘फ़र्श से अर्श तक’ जैसे किसी वाक्य को सार्थक-सी करती हुई...।