हम उसी शाम मिले थे...। बहुत सारी उदास शामों की तरह वो भी तो एक अटपटी सी शाम थी...और पता नहीं क्यों उस दिन लाल बाग जाने का इरादा त्याग कर मैं सैंकी टैंक आ गया था...। वहाँ किनारे लगी बेन्चों पर बैठ के अपनी तरह उदास झील को ताकते रहना मुझे बेहद पसन्द था...। सच कहूँ तो अकेले होकर भी वहाँ अकेलापन नहीं लगता था...। उस रोज भी मैं बेवजह झील के किनारे लगी रेलिंग पर हल्का झुका हाथों में वहीं से बटोरे गए कंकड़ों को एक-एक करके झील में फेंकता जा रहा था, कि तभी पीछे से वो आ गई, एक्सक्यूज़ मी...क्या आप मेरी एक पिक खींच देंगे...?