उलझते धागे

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ट्रेन छूटने में पन्द्रह मिनट का समय अब भी बाकी है। मैं खिड़की की ओर पीठ टिकाकर बैठी हूँ। ‘‘आ ऽ ई – ओ ऽ ऽ आई, दो ऽ न ऽ ऽ कुछ खाने को‘‘ कहते हुए किसी ने मेरी पीठ को हल्के से ठोंक दिया। मैं चौकन्नी होकर सीधी बैठ गई। खिड़की के उस पार से एक बच्चा उचक-उचक कर खाने के लिए कुछ माँग रहा है। सात-आठ साल की उम्र होगी इसकी। शरीर पर कपड़े के नाम पर बस एक फटा नेकर है। बाल बेतरतीब ढंग से बढ़े हुए तथा गन्दे हैं। पेट इतना पिचका हुआ है कि पसलियों की हड्डियों को भी आसानी से गिना जा सकता है । चेहरे पर धूल मिट्टी नाक थूक का अजीब मिश्रण, जिसे देखकर उबकाई आ जाये।