राख़

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(१) ये कविता मैंने आदमी की फितरत के बारे में लिखा है . आदमी की फितरत ऐसी है कि इसकी वासना मृत्यु पर्यन्त भी बरकरार रहती है. ये मृत्यु के बाद भी ईक्छा करता है कि मारने के बाद उसकी राख़ को यहाँ , वहाँ बहा दिया जाए. इसी पर चोट करती हुई ये कविता है. राख़ जाके कोई क्या पुछे भी,आदमियत के रास्ते।क्या पता किन किन हालातों,से गुजरता आदमी। चुने किसको हसरतों ,जरूरतों के दरमियाँ।एक को कसता है तो,दुजे से पिसता आदमी। जोर नहीं चल रहा है,आदतों पे आदमी का।बाँधने की घोर कोशिशऔर उलझता आदमी। गलतियाँ