डेरा उखड़ने से पहले

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लगातार बजती फोन की घंटी से झुंझला गयी थीं आभा जी. अभी पूजा करने बैठी ही थीं, कि फोन बजने लगा. एक बार टाल गयीं, दो बार टाल गयीं लेकिन तीसरी बार उठना ही पड़ा. अब उठने –बैठने में दिक़्क़त भी तो होती है न!! एक बार बैठ जायें, तो काम पूरा करके ही उठने का मन बनाती हैं आभा जी. बार-बार उठक-बैठक की न तो उमर रही उनकी, न इच्छा. घुटनों पर हाथ रख के किसी प्रकार उठीं , और फोन तक आयीं. दूसरी तरफ़ से वही चिरपरिचित आवाज़ आई-“ कैसी हैं आभा जी? आज दीवाली है न, तो