संवेदनाओं के स्वरः एक दृष्टि - 7

  • 7.1k
  • 1.7k

संवेदनाओं के स्वरः एक दृष्टि (7) जेलों की सलाखों में..... जेलों की सलाखों में, अब वो दम कहाँ । खा- म - खा उलझ रहे, क्यों कोतवाल से । जमाने का चलन बदला है, कुछ आज इस कदर । गुनाहों की ताज पोशियाँ हैं, बेगुनाह दरबदर । गलियों के अब कुत्ते भी, समझदार हो गये । झुंडों में निकलते हैं, वे सिपहसलार हो गये । शहरों में अब बंद का, है जोर चल पड़ा । गुंडों सँग नेताओं का,भाई चारा बढ़ चला । कुछ सड़कें क्या बनीं, वे माला-माल हो गये । बस हल्की सी बरसात में,फिर गड्ढे बन गये