मिथ्या

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1.मन हीं मन मे युद्ध छिड़ा है,मैं मेरे विरुद्ध खड़ा है। 2.अँधेरा में फैला सबेरा जहाँ पे,खुदा होता तेरा बसेरा वहां पे। 3.रेत के समंदर सी दुनिया में हम हैं,पता भी चले कैसे ये कैसा भरम है? 4.नफरतों के दामन में, जल रहे जो सभी है,कौन सा है मजहब इनका , कौन इनके नबी हैं? 5.ख़ुदा क्या हवा हो दिखते भी नहीं,मिलते भी नहीं हो मिटते भी नहीं।प्रभु तेरा दीपक जलाऊँ मैं कैसे,दिल मे गुनाहों का पानी बहुत है। 6.हाथ झुके दिल झुका नहीं,प्रेम पुष्प निज फला नही।ना संशय तूने त्याग किया,ना मिथ्या का परित्याग किया।फिर तुझे कैसे प्रभु मिलेंगे,विष गमलों में फूल