गोरा - 19

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अपने यहाँ बहुत दिन उत्पीड़न सहकर आनंदमई के पास बिताए हुए इन कुछ दिनों में जैसी सांत्‍वना सुचरिता को मिली वैसी उसने कभी नहीं पाई थी। आनंदमई ने ऐसे सरल भाव से उसे अपने इतना समीप खींच लिया कि सुचरिता यह सोच ही नहीं सकी कि कभी वे उससे दूर या अपरिचित थीं। न जाने कैसे उन्होंने सुचरिता के मन को पूरी तरह समझ लिया था और बिना बात किए भी वह सुचरिता को जैसे एक गंभीर सांत्वना देती रहती थीं। सुचरिता ने आज तक कभी 'माँ' शब्द का इस प्रकार उसमें अपना पूरा हृदय उँडेलकर उच्चारण नहीं किया था। वह कोई काम न रहने पर भी आनंदमई को 'माँ' कहकर पुकारने के लिए तरह-तरह के बहाने खोजकर बुलाती रहती थी। ललिता के विवाह के सब कर्म संपन्न हो जाने पर थकी हुई बिस्तर पर लेटकर वह बार-बार सिर्फ एक ही बात सोचने लगी, कि अब आनंदमई को छोड़कर वह कैसे जा सकेगी।