हुश्शू - 9

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लाहौर ! लाहौर ! लाहौर ! शैतान दूर लाला जोती परशाद साहब 'हुश्‍शू' को अब हम 'हुश्‍शू' न कहेंगे। क्‍योंकि अब ये अच्‍छे-भले इन्सानों की तरह रहते हैं। दो महीने के लिए ये बुजुर्गवार शहर से बाहर अपने गाँव के एक बाग में जा कर रहे और वहाँ से अपने दोस्‍तों को खत लिखे। एक खत लिख कर उसकी नकल करके रवाना की, जो हू-बहू नीचे दी जाती है : हजरत सलामत, गो मैंने अक्‍सर दोस्‍तों से माफी माँग ली है, मगर एक बार फिर माफी का खास्‍तगार हूँ। शाहाँ च अजब गर बिनवाजंदा गदा रा! (बादशाहों की शान से यह दूर नहीं है कि वह फकीरों को नेवाज दें!)