वे जो साधू होने का स्वांग रचते हैं, विशुद्ध बनिए या याचक के बीच के जीव होते हैं साधू का अपना घर-बार नहीं होता घर नहीं होता इसलिए वे कहीं भी, रमता-जोगी के रोल में पाए जाते हैं ’बार’ नहीं होता इसलिए वे पीने की, अपनी खुद की व्यवस्था पर डिपेंड रहते हैं