दोहरा दर्द

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मैं जिस विद्द्यालय में पढ़ता था वहाँ एक रोज किसी के टाइटल पूछने पर मैंने कहा कि टाइटल तो कोई नही लिखता जाति का चमार हूँ । जिस पर पहले तो किसी को यकीन नही हुआ सब कहने लगे सर आप नाराज क्यों हो रहे हैं । मैंने कहा मैं नाराज नही हूँ मुझे पता है जाति धर्म मूर्खों का गढ़ा हुआ है । इसलिए मैं अपने को छोटा महसूस नही करता । मैं डरता भी नही किसी से क्योंकि जो परीक्षा चाहो उसमें प्रतियोगिता करवा कर देख लो अगर मैं पीछे रहूँगा तो आगे वाले को बड़ा मानूँगा यदि आगे रहा तो मैं बड़ा हूँ । इसलिए जाति पूछने का क्या मतलब जब आप लोग नही मानते तभी कहना पड़ता है । खैर इसके बाद वहाँ किसी ने मुझसे जाति नही पूँछी । लेकिन यहीं से मेरे दोहरे दर्द की कहानी ने जन्म लेना प्रारम्भ कर दिया । मैं आने वाली परेशानी से बेखबर अपनी तैयारी में जुटा था । चेहरे पर छाई हुई चमक गरीबी पर पर्दा डाले हुए थी । मेरा विश्वास और पिताजी की बातें मुझे बल दे रहीं थीं । लेकिन दर्द का बीज अंकुरित हो रहा था , जिसकी खबर किसी को न थी ।