सोफी का संसार - भाग 1 Anarchy Short Story द्वारा मनोविज्ञान में हिंदी पीडीएफ

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सोफी का संसार - भाग 1

जॉस्टिन गार्डर

जॉस्टिन गार्डर का जन्म नॉर्वे की राजधानी ओस्लो में 8 अगस्त, 1952 को एक शिक्षक परिवार में हुआ था। लेखक बनने का निर्णय उन्होंने 19 वर्ष की आयु में लिया और बाल साहित्य की रचना प्रारम्भ कर दी। जॉस्टिन गार्डर का कहना है कि वह दोस्तोयेव्स्की, हरमन हैस, जार्ज लुई बोर्गेस तथा नॉर्वेजियन लेखक नुत हैमसन से प्रभावित हुए। उनका पहला कहानी-संग्रह 'निदान तथा अन्य कहानियाँ' 1986 में प्रकाशित हुआ। तदुपरान्त उनके दो उपन्यास-'द फ्रॉग कैसल' (1988) तथा 'द सॉलिटेयर मिस्ट्री' (1990) प्रकाशित हुए।

    वे लगभग दो दशकों के लिए ओस्लो के एक कॉलेज में दर्शनशास्त्र के अध्यापक रहे। 'सोफी का संसार' की अभूतपूर्व सफलता के पश्चात उन्होंने अपना पूरा समय लेखन को समर्पित करने का निर्णय लिया। तब से अब तक उनके 13 से अधिक उपन्यास तथा बाल-साहित्य कृतियाँ प्रकाशित हुई हैं।

    उन्हें 'सोफी का संसार' तथा अन्य पुस्तकों के लिए अनेक अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है।

ईडन की बगिया

किसी क्षण अवश्य ही कुछ शून्य से निकलकर आया होगा...

सोफी एमंडसन स्कूल से अपने घर की ओर आ रही थी। वापसी के शुरूवाले हिस्से में जोआना उसके साथ थी। वे रोबोट्स पर चर्चा कर रही थीं। जोआना सोचती थी कि मनुष्य का मस्तिष्क एक उन्नत कम्प्यूटर जैसा ही है, पर सोफी उससे पूरी तरह सहमत नहीं थी। निश्चय ही एक व्यक्ति महज मशीन ही तो नहीं होता न !

     सुपर मार्केट पहुँचने के बाद वे अपने अलग-अलग रास्तों पर चल पड़ीं। सोफी एक पसर रहे उपनगर के बाहरी हिस्से में रहती थी, और वहाँ से स्कूल की दूरी, जोआना की तुलना में, दुगुनी थी। उसके घर के आगेवाले बाग से परे कोई और मकान नहीं थे, जिससे ऐसा लगता था कि उनका मकान दुनिया के आखिरी छोर पर है, जहाँ से आगे वन शुरू हो जाते थे।

      नुक्कड़ से घूमकर वह क्लोवर क्लोज में आ गई। सड़क के आखिरी सिरे पर एक तीखा मोड़ था, जिसे कैप्टेन्स वैन्ड्ड कहते थे। सप्ताहान्त को छोड़कर लोग उस तरफ अक्सर नहीं जाते थे।

      मई के शुरुआती दिन थे। कुछ बागों में फलदार वृक्ष डैफोडिल्स के घने गुच्छों से घिरे हुए थे। बर्च के वृक्षों पर पहले से ही हलके हरे पत्ते आने लगे थे।

      कितनी अद्भुत बात थी कि वर्ष के इस समय न जाने कैसे हर चीज फूट निकलती थी। क्या बात थी कि बर्फ के आखिरी निशान गायब होते और मौसम में हलका गुनगुनापन आते ही, मरी हुई धरती से हरी वनस्पति का विशाल कलेवर बाहर उमड़ पड़ता था।

      जैसे ही सोफी ने अपने बाग का दरवाजा खोला, उसने मेल-बॉक्स में झाँका। प्रायः भारी मात्रा में बेकार की डाक होती और कुछ बड़े लिफाफे उसकी माँ के नाम होते। एक ऐसा ढेर जिसे वह रसोई की मेज पर पटक देती और फिर ऊपर अपने कमरे में होमवर्क शुरू करने के लिये जा पहुँचती।

      कभी-कभी उसके पिता के नाम बैंक से भी कुछ पत्र होते पर उसके पिता एक साधारण पिता नहीं थे। सोफी के पिता एक बड़े तेलवाहक जहाज के कैप्टन थे और वर्ष का अधिकतर समय बाहर यात्रा पर ही रहते थे। जब कभी कुछ सप्ताहों के लिए वह घर पर होते, तो सोफी और उसकी माँ के लिए घर को सुखद और आरामदेह बनाने के लिए घर में चीजों को सजाते-सँवारते रहते। किन्तु जब वह समुद्री अभियान पर होते तो कहीं बहुत दूर जा चुके प्रतीत होते।

       मेल-बॉक्स में केवल एक ही पत्र था और वह था सोफी के नाम । सफेद लिफाफे पर लिखा था 'सोफी एमंडसन, 3 क्लोवर क्लोज' । बस इतना ही, भेजनेवाला कौन है, यह कहीं नहीं लिखा था। इस पर कोई डाक टिकट भी नहीं थी।

     सोफी ने गेट बन्द करते ही लिफाफा खोला। अन्दर लिफाफे के साइज के बराबर कागज की एक स्लिप थी। लिखा था: तुम कौन हो?

       और कुछ नहीं, केवल तीन शब्द, हाथ से लिखे हुए, और उनके बाद एक बड़ा प्रश्नचिह्न?

      उसने लिफाफे को दोबारा देखा। पत्र तो निश्चय ही उसी के लिए था। आखिर मेल-बॉक्स में इसे किसने डाला होगा?

     सोफी जल्दी-जल्दी लाल मकान में चली आई। हमेशा की तरह आज भी उसकी बिल्ली, शेरेकन, फुर्ती से झाड़ियों से निकलकर आगे बढ़ती पैड़ी पर कूदी और इससे पहले कि सोफी घर का दरवाजा बन्द करती अन्दर आ गई।

      जब सोफी की माँ का मूड ठीक नहीं रहता, तो वह घर को मैनेजरी, जगली जानवरों का संग्रहालय कहती। निश्चय ही सोफी के पास यह संग्रहालय था और वह इससे काफी खुश थी। इसकी शुरुआत हुई थी तीन सुनहरी मछलियों से गोल्डटॉप, रैड राइडिंग हुड और ब्लैक जैक। उसके बाद वह दो ऑस्ट्रेलियाई बजरीगर मिठू ले आई, जिनके नाम स्मिट और स्म्यूल थे, फिर गोविन्दा नामक कछुआ आया और अन्त में मार्मालेड जैसी बिल्ली, शेरेकन। यह सब उसे इसलिए दिए गए थे क्योंकि उसकी माँ कभी भी अपने काम से दोपहरी बीतने के भी काफी देर तक घर नहीं लौट पाती थी और उसके पिता तो अधिकांश समय बाहर ही रहते थे, सारी दुनिया में समुद्री यात्राएँ करते हुए।

        सोफी ने अपना स्कूल-बैग फर्श पर एक कोने में लटका दिया और एक बड़े कटोरे में कैट-फूड भरकर शेरेकन के सामने रख दिया। फिर वह रहस्यमय पत्र अपने हाथ में लिये हुए रसोई में स्टूल पर बैठ गई।

तुम कौन हो?

उसे इसकी कोई समझ नहीं थी। हाँ, वह सोफी एमंडसन, अवश्य थी, किन्तु सच में वह थी कौन? वास्तव में इसका सुराग नहीं लगा पाई थी अब तक। अगर उसे कोई दूसरा नाम दे दिया गया होता, तो क्या होता? जैसे ऐनी नट्सेन, तो तब क्या वह कोई और हो जाती ?

       तब अचानक उसे याद आया कि शुरू में उसके पिता चाहते थे कि उसे लिलेमोर के नाम से जाना जाए। सोफी ने कल्पना करने का प्रयास किया कि वह लिलेमोर एमंडसन के रूप में अपना परिचय दे रही है और हाथ मिला रही है, किन्तु उसे यह सब गलत लगा। वह तो कोई और थी जो सबको अपना परिचय दिए जा रही थी।

      वह कूद कर बाथरूम में चली गई, उस विचित्र पत्र को अपने हाथ में लिये हुए। अब वह दर्पण के सामने खड़ी रहकर अपनी आँखों की प्रतिछाया को एकटक देख रही थी।

      'मैं सोफी एमडसन हूँ,' उसने कहा।

      दर्पण में मौजूद लड़की ने कोई भी प्रतिक्रिया नहीं की कि थोड़ा-सा भी हिलती-डुलती । जो कुछ भी सोफी करती, वह भी हूबहू वैसा ही करती। सोफी ने दर्पण में अपनी प्रतिछाया को चपल गति से हराने की चेष्टा की, किन्तु वह भी उतनी ही तेज निकली।

      'तुम कौन हो,' सोफी ने पूछा।

     सोफी को इसका भी कोई प्रत्युत्तर नहीं मिला, हाँ उसे क्षणिक भ्रम तो जरूर हुआ कि यह प्रश्न उसने पूछा था या उसकी प्रतिछाया ने।

   सोफी ने अपनी वर्तनी शीशे में नाक पर लगाई और कहा, 'तुम मैं हो।'

जब उसे इसका भी कोई उत्तर नहीं मिला, तो उसने वाक्य को पलटा कर कहा, 'मैं तुम हूँ।'

      सोफी एमडसन प्रायः अपनी शक्ल-सूरत से असन्तुष्ट रहती थी। उसे अक्सर बतलाया जाता कि उसकी आँखें सुन्दर हैं बादाम के आकार-सी, किन्तु लोग शायद सिर्फ ऐसा इसलिए कहते थे क्योंकि उसकी नाक कुछ ज्यादा ही छोटी थी और मुँह ज्यादा बड़ा। उसके कान भी आँखों के कुछ ज्यादा नजदीक थे। सबसे खराब थे उसके सीधे लटकते बाल, जिनके साथ कुछ भी करना असम्भव था। कभी-कभी उसके पिता उसके बालों को सहलाते और उसे क्लॉड डेबुसी के एक संगीत रचना की तरज़ पर 'अलसी जैसे बालोंवाली लड़की' कहते। पिताजी के लिए तो यह ठीक था, क्योंकि उन्हें ऐसे सीधे-सपाट केशों के साथ जीने की कोई मजबूरी नहीं थी। सोफी के केशों पर न तो किसी खुशबूदार क्रीम और न ही किसी स्टाइलिंग जेल का कोई प्रभाव पड़ता । कभी-कभी सोफी सोचती कि वह कितनी भद्दी है, कहीं ऐसा तो नहीं कि वह जन्म से ही ऐसी बदशक्ल हो। उसकी माँ सदैव उसे जन्म देते समय हुई अपनी प्रसव पीड़ा का जिक्र करती रहती थी। किन्तु क्या उसकी बदसूरती इसी कारण थी ?

       कितना अजीब था कि उसे यह भी नहीं मालूम कि वह असल में कौन थी? और क्या यह अनुचित नहीं था कि उससे इस बारे में कभी भी नहीं पूछा गया कि वह कैसी दिखना चाहती है? उसकी छवि तो बस उस पर मढ़ दी गई थी। वह अपने मित्रों को तो चुन सकती थी, किन्तु यह निश्चित था कि उसने स्वयं को खुद नहीं, चुना था। उसने तो यह भी नहीं चुना था कि वह एक मानुषी बनेगी।

       मनुष्य होना क्या है?

       सोफी ने एक बार फिर से शीशे में खड़ी लड़की पर निगाह डाली।

     'मैं सोचती हूँ अब ऊपर जाकर जीव-विज्ञान का होमवर्क करूँगी,' उसने लगभग क्षमायाचना के भाव से कहा। पर बाहर हॉल में आई, तो फिर सोचने लगी। 'नहीं, इससे तो बेहतर होगा कि मैं बाग में जाऊँ।'

      'किट्टी, किट्टी, किट्टी ।'

     सोफी ने बिल्ली को भगाकर दरवाजे की पैड़ियों पर निकाल दिया और बाहर का दरवाजा बन्द कर दिया।

      अब सोफी बाहर बजरीवाले रास्ते पर उस रहस्यमय पत्र को हाथ में लिये खड़ी थी कि एक बड़ा ही विचित्र भाव उसके शरीर में दौड़ गया। उसे लगा जैसे वह एक गुड़िया है जिसे कोई जादुई छड़ी घुमाकर अचानक सजीव बना दिया गया है।

     क्या यह अद्भुत नहीं था कि ठीक इस पल वह इस दुनिया में मौजूद है आश्चर्यजनक जोखिमपूर्ण संसार में इधर-उधर घुमते हुए !

    शेरेकन कँकरीले रास्ते को हलके से फुदककर पार कर गई और लाल करांट की घनी झाड़ियों में जा छुपी। सफेद मूँछों जैसे बालों से लेकर हिलती पूँछ तक प्राणवान ऊर्जा से भरी हुई, एक चपल छरहरी बिल्ली, यहाँ बाग में थी, पर उसके मन में सोफी जैसे विचार नहीं थे।

     जैसे ही सोफी ने अपने ज़िन्दा होने के बारे में सोचना शुरू किया, तुरन्त ही उसके मन में यह भी आया कि वह सदैव जीवित नहीं रहेगी। अभी मैं दुनिया में मौजूद हूँ, उसने सोचा, किन्तु एक दिन तो मैं यहाँ से चली जाऊँगी।

      क्या मृत्यु के बाद जीवन है? यह एक अन्य प्रश्न था जिसके विषय में बिल्ली अपनी अनभिज्ञता में प्रसन्न थी।

     सोफी की दादी माँ का देहान्त हुए कोई ज्यादा समय नहीं हुआ था। छः महीने से अधिक समय तक सोफी उन्हें हर रोज याद किया करती थी। कितना अनुचित है कि जीवन को समाप्त होना ही पड़ता है।

      सोफी कँकरीले रास्ते पर सोचती हुई खड़ी थी। अपने जीवित होने को लेकर उसने और भी जोर से सोचने की चेष्टा की ताकि भूल सके कि वह सदैव जीवित नहीं रहेगी। किन्तु यह असम्भव था। जैसे ही वह अपने जीवित होने के अहसास पर ध्यान एकाग्र करती उसी क्षण अपने मरने की बात भी दिमाग में आ जाती । दूसरी तरह से सोचने की कोशिश करने पर भी वैसा ही हुआ। एक दिन वह मर जाएगी, इस बारे में तीव्रता से सोचने पर ही वह अभी अपने जीवित होने की अ‌द्भुत सुन्दरता और अच्छाई का भरपूर आनन्द महसूस कर सकती थी। यह अनुभूति एक सिक्के के दो पहलुओं जैसी थी, जिसे वह बराबर उलट-पुलट रही थी। और जैसे ही सिक्के का एक पहलू बड़ा और ज्यादा साफ होता वैसे ही दूसरा पहलू भी उतना ही बड़ा और साफ नजर आने लगता।

      उसे लगा कि जीवित होने का अनुभव आप यह महसूस किए बिना नहीं कर सकते कि आप को मरना है। यह महसूस करना कि आपको मर जाना है तब तक नामुमकिन है जब तक आप यह न सोचें कि जीवित होना कितना अद्भुत है, कितना अविश्वसनीय रूप से विस्मयकारी ।

       सोफी को याद आया कि दादी माँ भी उस दिन कुछ ऐसा ही कहा था जब डॉक्टर ने उन्हें बताया था कि वह बीमार हैं। 'मैंने आज से पहले यह कभी महसूस नहीं किया कि जीवन कितना अद्भुत है।' दादी ने कहा था।

    कैसी विडम्बना है। यह समझने के लिए कि जीवित रहना कैसा सुन्दर उपहार है लोगों को बीमार होना पड़ता है या फिर उन्हें अपने मेल-बॉक्स में एक रहस्यमय पत्र को प्राप्त करना होता है।

      शायद उसे जाकर देखना चाहिए कि कोई और पत्र तो नहीं आए हैं। सोफी जल्दी-जल्दी गेट के पास गई और हरे रंग के मेल-बॉक्स में झाँका। यह देखकर वह चौंक गई कि उसमें एक सफेद लिफाफा और पड़ा था, बिलकुल पहले जैसा। किन्तु जब उसने पहला लिफाफा निकाला था, तब तो मेल-बॉक्स बिलकुल खाली हो गया था। इस लिफाफे पर भी उसका नाम लिखा था। उसने इसे फाड़कर खोल लिया और अन्दर से एक कागज निकाला, यह भी बिलकुल पहलेवाले साइज का था।

          दुनिया कहाँ से आई? इस कागज पर लिखा था।

     मुझे नहीं मालूम ! सोफी ने सोचा। सच तो यह है इस बारे में कोई कुछ भी नहीं जानता फिर भी उसे लगा कि यह प्रश्न उचित ही था। उसने अपने जीवन में पहली बार अनुभव किया कि कम-से-कम यह पूछे बिना कि दुनिया कहाँ से आई, दुनिया में रहना उपयुक्त नहीं है।

      इन रहस्यमय पत्रों से सोफी का दिमाग चकराने लगा। उसने फैसला किया कि वह अपनी माँद में जाकर बैठेगी।

     माँद सोफी की छिपने की सबसे अधिक गुप्त जगह थी। जब वह बहुत गुस्से में होती या बहुत दुखी होती या फिर अत्यन्त प्रसन्न होती थी तो वह आकर इसी जगह छिप जाती थी। आज तो वह पूरी तरह दिग्भ्रमित थी।

      लाल मकान के चारों ओर बहुत बड़ा बाग था, उसमें बहुत-सी फूलों की क्यारियाँ, फलों की झाड़ियाँ, विभिन्न प्रकार के फलों के वृक्ष, एक लम्बा-चौड़ा लॉन था जिसमें एक झूला और एक समर हाउस था जिसे दादाजी ने दादी माँ के लिए बनवाया था, यह उन दिनों की बात है जब उनकी पहली बच्ची जन्म के कुछ सप्ताहों के अन्दर ही चल वसी थी। उस बच्ची का नाम मेरी था। उसकी कब्र के पत्थर पर यह शब्द लिखे थे: 'छोटी मेरी हमारे पास आई, हमारा अभिवादन किया, और फिर चली गई।'

     बाग के एक कोने में रसभरी की झाड़ियों के पीछे एक घना झुरमुट था जहाँ न फूल लगते थे और न ही बेरियाँ। वास्तव में यह वह एक पुरानी बाड़ थी जो किसी समय बाग की वाउंड्री के रूप में लगाई गई थी, पर क्योंकि इसे पिछले बीस वर्षों से काटा-छाँटा नहीं गया था, यह बढ़ती-बढ़ती इतनी घनी और उलझ गई थी कि कुछ भी इसके आरपार नहीं जा सकता था। दादी माँ कहा करती थीं कि पिछले युद्ध के दौरान इसी झाड़ी के कारण लोमड़ियों के लिए चूजे उठा ले जाना बेहद कठिन हो गया था, जबकि वे बाग में खुले घूमते थे।

       सोफी को छोड़कर बाकी सबके लिए यह झाड़ी उतनी ही बेकार थी जितना बाग के दूसरे छोर पर खरगोशों का बाड़ा। किन्तु ऐसा इसलिए था कि कोई भी सोफी का गोपनीय भेद जानता नहीं था।

      सोफी को झाड़ियों में बने छोटे से छेद की बहुत पहले से जानकारी थी। वह रेंगती हुई छेद के पार निकली तो झाड़ियों के बीच बनी एक बड़ी खोखर में जा पहुँची। यह जगह एक छोटी माँद जैसी थी। वह निश्चिन्त थी कि यहाँ उसे कोई भी नहीं ढूँढ़ सकेगा।

     दोनों लिफाफों को हाथ में थामे सोफी बाग में दौड़ती गई, फिर हाथों और पाँवों के बल घुटनियों चलती हुई वह झाड़ियों में घुस गई। इस गुप्त माँद में इतनी जगह थी कि सोफी उसमें सीधी खड़ी हो सकती थी, किन्तु आज वह टेढ़ी-मेढ़ी जड़ों के एक ढेर पर बैठ गई। वहाँ बैठकर वह पत्तों और टहनियों के बीच बने छोटे-छोटे छिद्रों से बाहर देख सकती थी। हालाँकि कोई भी छेद किसी छोटे सिक्के से बड़ा नहीं था, फिर भी वह सारे बाग पर अच्छी नजर रख सकती थी। जब वह छोटी थी तो उसे वहाँ पेड़ों के बीच उसे ढूँढ़ते फिरते से माता-पिता को देखने में बड़ा मजा आता था। उसके लिए यह एक खेल था।

      सोफी सदा ही यह सोचती थी कि यह बाग एक अलग ही दुनिया है। जब भी वह बाइबिल में ईडन की बगिया की बात सुनती तो उसे लगता कि यह गुप्त स्थान भी वैसा ही है जहाँ बैठकर वह छोटे से स्वर्ग का सर्वेक्षण कर रही है।

       दुनिया का निर्माण कैसे हुआ?

     इस बारे में वह कुछ भी नहीं जानती थी। सोफी को इतना मालूम था कि धरती अन्तरिक्ष में एक छोटा-सा ग्रह है। लेकिन अन्तरिक्ष कहाँ से आया?

     ऐसा सम्भव था कि अन्तरिक्ष सदा से ही रहा हो, इस सूरत में उसे यह पता लगाने की जरूरत नहीं है कि यह कहाँ से आया। पर क्या कोई चीज हमेशा से ही होती है और हमेशा ही वनी रह सकती है? उसके मन की गहराई में इस विचार के विरोध का भी कोई आधार था। निश्चय ही दुनिया में मौजूद हर चीज का आरम्भ कभी न कभी तो हुआ ही होगा। इसलिए अन्तरिक्ष भी सम्भवतया किसी समय किसी दूसरी चीज से बनाया गया होगा।

       किन्तु यांदे अन्तरिक्ष किसी दूसरी चीज से बना, तो वह दूसरी चीज भी किसी अन्य चीज से बननी चाहिए। सोफी ने महसूस किया कि वह मूल समस्या को सिर्फ टालती जा रही है। किसी बिन्दु पर कोई चीज शून्य से बनी होनी चाहिए। क्या यह बात उस असम्भव विचार की तरह नहीं है कि इस ससार का अस्तित्व सदा से रहा है बिना किसी प्रारम्भ के?

      उन्होंने स्कूल में सीखा था कि ईश्वर ने दुनिया को बनाया है। सोफी ने स्वयं को सान्त्वना देने का प्रयास किया कि सम्भवतः यही इस समस्या का सबसे बढ़िया समाधान है। किन्तु उसने फिर से सोचना शुरू कर दिया। वह यह तो स्वीकार कर सकती थी कि ईश्वर ने अन्तरिक्ष बनाया, किन्तु फिर स्वयं ईश्वर कहाँ से आया? क्या उसने स्वयं को शून्य से बनाया था? एक बार फिर उसके मन की गहराई में कुछ था जो इस विचार का विरोध कर रहा था। माना कि ईश्वर सब प्रकार की चीजें बना सकता है किन्तु वह स्वयं को तब तक नहीं बना सकता जब तक उसके पास बनाने के लिए 'स्व' न हो। तो बस एक सम्भावना शेष बची रह जाती है ईश्वर का अस्तित्व सदा रहा है। ईश्वर स्वयंभू है। किन्तु इस सम्भावना को तो वह पहले ही अस्वीकार कर चुकी थी। हर चीज का, जो भी अस्तित्ववान है, एक आरम्भ तो होना ही चाहिए।"

         उफ, कैसी उलझन है!

         उसने दोनों लिफाफे फिर खोल डाले :

         तुम कौन हो ?

         दुनिया कहाँ से आई?

        नाहक परेशान करनेवाले सवाल? और हाँ, यह पत्र कहाँ से आया, यह बात भी लगभग उतनी ही रहस्यमय थी।

       वह कौन है जिसने सोफी के जीवन को झंझोड़ कर रख दिया था और अचानक ही उसे विश्व की सबसे गूढ़ पहेलियों के सामने ला खड़ा किया था?

      सोफी तीसरी बार फिर अपने मेल-बॉक्स के पास गई। कुछ क्षण पहले ही डाकिया आज की डाक डाल गया था। सोफी ने इसमें से बेकार चिट्ठियों का बड़ा-सा ढेर बाहर निकाला, जिसमें कुछ पत्र-पत्रिकाएँ थीं और कुछेक पत्र उसकी माँ के लिए थे। एक पोस्टकार्ड था, उष्णकटिबन्धीय समुद्री तट का चित्र बना था इस पर। उसने कार्ड को उलटा। इस पर नॉर्वे की डाक टिकट लगी थी और इस पर डाक-चिह था 'यू एन बटालियन।' क्या इसे पापा ने भेजा था? किन्तु वह तो इस समय एकदम किसी दूसरी जगह पर थे? और हैंडराइटिंग (हस्त-लेखन) भी उनकी नहीं थी।

     जब सोफी ने देखा कि पोस्टकार्ड पर लिखा है-'हिल्डे मोलर नैग, मार्फत सोफी एमडसन, 3 क्लोवर क्लोज...' तो उसकी नब्ज तेज चलने लगी। बाकी पता बिलकुल सही था। कार्ड पर लिखा था : 'प्रिय हिल्डे, 15वें जन्मदिन की शुभकामनाएँ। मुझे भरोसा है तुम यह समझ जाओगी कि मैं तुम्हें ऐसा उपहार देना चाहता हूँ जो तुम्हारे बड़े होने में मदद करेगा। इस कार्ड को सोफी की मार्फत भेजने के लिए क्षमा करना। यह सबसे आसान तरीका था। पिता की ओर से प्यार।

      सोफी दौड़ती हुई वापस मकान में पहुँची और रसोई में चली गई। उसके दिमाग में गहन उथल-पुथल हो रही थी। यह हिल्डे कौन थी, जिसका पन्द्रहवाँ जन्मदिन उसके अपने जन्मदिन से एक महीने पहले पड़ रहा था?

   सोफी ने टेलीफोन डायरेक्टरी निकाली। मोलर नाम के बहुत सारे आदमी थे, और कई नैग नाम के भी। किन्तु पूरी डायरेक्टरी में मोलर नैग के नाम से कोई नहीं था।

     उसने रहस्यमय कार्ड को दोबारा ध्यान से देखा। कार्ड तो सही लगता था। इस पर टिकट भी लगा था और डाकखाने की मुहर भी थी।

    आखिर कोई पिता अपनी बेटी के जन्मदिन की बधाई का कार्ड सोफी के पते पर क्यों भेजेगा जबकि कार्ड किसी दूसरे पते पर जाना चाहिए था। किस तरह एक पिता जानबूझकर उसके जन्मदिन का कार्ड दूसरी जगह भेजकर अपनी बेटी को धोखा देना चाहेगा? यह सबसे आसान तरीका कैसे हो सकता है? और सबसे बड़ी बात यह थी कि वह 'हिल्डे' नाम की लड़की का पता कैसे लगा पाएगी?

      सोफी के सामने चिन्ता करने के लिए अब एक और समस्या खड़ी हो गई थी। उसने अपने गड्डमड्ड विचारों को व्यवस्थित करने की कोशिश की।

     आज तीसरे पहर, दो घंटों की छोटी समयावधि में, उसके सामने तीन उलझनें परोस दी गई थीं। पहली समस्या थी-वे दो सफेद लिफाफे उसके मेल-बॉक्स में किसने रखे। दूसरी पहेली वे कठिन प्रश्न थे जो इन लिफाफों में रखे कागजों में लिखे थे। तीसरी परेशानी थी, यह हिल्डे मोलर नैग कौन हो सकती है, और उसका जन्मदिन बधाई कार्ड सोफी को नॉर्वे से क्यों भेजा गया है। उसे विश्वास था कि यह तीनों समस्याएँ किसी-न-किसी रूप में आपस में जुड़ी हुई हैं। ऐसा होना ही चाहिए, क्योंकि आज तक तो वह पक्की तरह से एक साधारण जीवन ही जीती आ रही थी।