ताश का आशियाना - भाग 43 Rajshree द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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ताश का आशियाना - भाग 43

एक बनाया गया चक्रव्यूह एक वक्र(curve) जो कहीं जाकर रुक ही नहीं रहा था और बीचो बीच बनाया गया एक बिंदु।
उस डूडल के नीचे लिखा गया था, चक्रव्यूह में फंसा अर्जुन।


तीन राक्षस जिनके बड़े बड़े सिंग थे। और दिखने में भी काफी भद्दे थे। तस्वीर में जो बीच में एक महिला दिखाई दे रही थी उसे एक डायन का रूप दे दिया गया था।
और बाकी दोनो को किसी राक्षस का हुलिया। जैसे की वो कोई सुख खाने वाले दानव हो। जिनकी आंखें लालसा और गुस्से से भरी थी।
चित्र का नाम : थ्री डेविल

एक काली डायरी जिसपर पेन से लिखता एक व्यक्ति।
लंबी कद काठी , सिर पर बाल का कोई नमो निशान नहीं।
बस फिर से उगने के लिए बचा दी गई जड़े। जो अगर सिर पर हाथ फिराया जाए तो काफी नुकीली लगती।
ऊपर पहना हुआ अस्पताल का शर्ट और उस पर स्वेटर।


पैरों के पास स्लीपर लेकिन दयनीय अवस्था तो यह थी कि वह जिस रूम में था, उस रूम को बाहर से ताला लगाकर, उसे कैद कर दिया गया था। ताकि वह कहीं भाग न पाए।
खाने–पीने और साफ सफाई के लिए ही उसने वह पिंजरा खुलते हुए देखा था।

उसके अंदर का तूफान सिर्फ उसको ही पता था। पिंजरे में कैद पंछी चक्रव्यूह में फंसा अर्जुन और क्या-क्या नहीं मान बैठा था वह खुद को।

उसे समझ में नहीं आ रहा था कि क्या हो रहा है उसके साथ।

उसे ना समय का पता चलता ना दिन का, बस जिंदगी कट रही थी।

ठीक शाम 4:00 बजे, उसे लोगों के साथ बैठने के लिए बाहर लेकर जाया जाता लेकिन उसे उन लोगों के साथ किसी भी तरह की भावनाएं महसूस ही नहीं होती।
भावनाएं महसूस ना होना कोई गलती तो नहीं थी।
"हमें सोशल होना होगा।" इस तरह की मानवीय भावना उसके अंदर खत्म हो चुकी थी।

धीरे-धीरे बस वो अंदर से मर रहा था... सांसे बहुत सस्ती चीज हो गई थी उसके लिए।
एक बार की खत्म हो जाए और उसका आखिरी दिन हो।

रोज वही, एक कप चाय उसके साथ दो बिस्कुट, ब्रेकफास्ट में कभी पराठा, कभी उपमा तो कभी कुछ तो कभी कुछ।
लेकिन हर एक चीज पर्याप्त मात्रा में ही मिलती।

कभी-कभी चिल्लाने की इच्छा होती थी लेकिन वह भी आजकल दब गई थी।
चिल्लाते ही शांत करने का एक ही तरीका था उन लोगों के पास जिसे सिद्धार्थ काफी डर जाता।

'इंजेक्शन!' इसके बाद, उसके कितने घंटे बीत जाते, कितने कुछ पल जिंदगी के उसने खो दिए होते, उसे इस बात का कोई इल्म (जानकारी) नहीं होता।

इंजेक्शन का असर खत्म होते ही फिर से चलता फिरता वही जीवन उसकी जिंदगी जीने की उम्मीद को और भी मार रहा था।

लेकिन एक दिन अचानक तीसरा चित्र उसके बुक पर छप गया जिसे वह बड़ी बारीकी से, बड़ी शिद्दत से तराश रहा था।

"दो आंखें" एक बहुत ही सुंदर आंखें जिसमें वो कही खो जाना चाहता था। जिसे वह अपने पास चाहता था।
महसूस करना चाहता था वह खुदमें उसको।
इन आंखों की हर एक नजर पर वह खुद का हक चाहता था।

कोई बहुत वर्ल्ड क्लास डूडल या चित्र वह बनाता नहीं था।
लेकिन उसका मन खाली होकर उसकी कल्पना पन्नों पर जीवंत होना भी उसके लिए काफी था।

सिद्धार्थ उस चित्र के जरिए सांस लेने का मकसद ढूंढता।
क्योंकि लिखे जाए ऐसे शब्द बटोरना उसके दिमाग के लिए फिलहाल काफी मुश्किल था।
कब गोलियां सर पर नाचेगी उसे पता नहीं चलता।

गोलियों के असर में कितने घंटे बीत जाएंगे और उससे उठने के बाद वो स्थिर भी रहेगा या नहीं, इस बात की जानकारी भी उसे नहीं होती।
फिर भी वक्त मिलते ही खालीपन उतर जाता उन पन्नों पर।
धीरे-धीरे शब्द भी उतरने लगेंगे ऐसा विश्वास उसमें पनपने लगा था।

धन्यवाद मानता था वह उस शिव का।
जिसके कारण उसे यह चमत्कारी रूपी डायरी और बोल पेन का पूरा पैकेट अपने कपड़ों के अंदर मिला था।

और भी एक चीज मिली थी उसे, वह पत्र जिसमें लिखा गया था की वो इस डायरी को संभाल कर और लोगो से बचाकर रखे।

तब सिद्धार्थ ने उसपर ध्यान नहीं दिया लेकिन डायरी खुदके पास रखने के बात से भी वो पीछे नहीं हटा। परिणाम यह हुआ आज की वो उसकी सांस बन चुकी है।

उस पत्र लिखने वाले को वो शिवगण ही मानता था, जिसने उसे जिंदा रखने का सहारा दिया।

"भगवान जब सांसे खरीदना नहीं चाहता और जिंदगी जीने की लालसा खत्म हो जाए तो छोटी से छोटी चीज भी उम्मीद बन जाती है।"

उसी का नाम किसी के लिए चमत्कार, किसी के लिए ऑब्सेशन, तो किसी के लिए प्राण होती है।

वो डायरी फिलहाल उसके लिए एक चमत्कार थी।

क्योंकि उसका ऑब्सेशन तो दुनिया के किसी कोने में खुश होगा ऐसी ही सेटिंग उसने भगवान नरेश से लगाए रखी थी।

और शायद भगवान भी मान लेता हो उसकी बाते, इसलिए तो रागिनी उसे भूल नहीं पा रही थी।

दूसरी तरफ, तुषार अपनी जिंदगी में व्यस्त हो गया था।
लेकिन जब बीच-बीच में ही सिद्धार्थ का जिक्र निकल आता तो उसके दिल मे कोई जोर से हतोड़ा मार देता।

"क्या सच में डायरी भाई के हाथों लगी होंगी?
या फिर वहां के लोगों ने जप्त कर ली होगी?"
वहा के वातावरण को देखते जप्त कर लेना ज्यादा सुलझा हुआ विचार लगता था उसे।
और सिद्धार्थ के पास वह डायरी होना या उस पर कुछ लिखा जाना कोई करिश्मा।


नारायण जी रोज सिद्धार्थ की खबर लेते रहते। जितना प्यार तो उन्हें बेटे के ठीक रहने पर नहीं था, उतना तो बीमार रहने पर था।

लेकिन किस्मत का तकाजा तो देखो जिस पर यह प्यार निछावर हो रहा था उसको इस बात की कोई खबर नहीं थी।

उसके लिए तो खुद के पिता ही एक राक्षस थे, जो थ्री डेविल में से एक थे।


-----------) नारायणजी जो की खबर ले रहे थे उसके भाई की उससे यह जानकारी तुषार को थी कि, वो अभी भी लोगों से घुलने मिलने में असहज हो रहा था। लोगों के साथ उसका बर्ताव काफी आक्रामक था।
इसके लिए अभी भी उसे सेल में ही रखा गया था।
खाना पीना भी वही होता था उसका।

सिद्धार्थ की, अपने भाई की ऐसी दयनीय अवस्था तुषार के दिल में दुख का सागर भर देती।

सिद्धार्थ की वह साइड भी तुषार ने देखी थी जो शायद उसके मांता–पिता भी देखने में असमर्थ थे।

उसके भाई को उसने काफी आशावादी और साहसी पाया था।
वह भाई बाद में, आईडोल पहले था। और उनका का यह हाल होना उसके अंदर आत्मग्लानि(regression) भर देता।
इसलिए वह हमेशा भगवान से प्रार्थना करते रहता की वह हमेशा उसके भाई के साथ साए की तरह खड़ा रहे।

--------) रागिनी को भी हफ्ते में दो से तीन बार परेशान किया जाता। उसमे उसके माता-पिता और दादाजी शामिल होते थे।

वह इन कुछ महीनो में अपने दादाजी और अपनी मां वैशाली से ज्यादा नजदीक आ गई थी।
लेकिन पिता का अभी भी बॉन्ड अच्छा नहीं हो पाया था, बेटी के साथ।
"कैसी हो?"
"ठीक हु।"
"कैसे है वहा के लोग?"
"ठीक।"
"तुम कब हमसे मिलने आओगी?"
फोन कट!!

एक बाप के दिल के टुकड़े हो जाते।
शायद ही कभी एक बिजनेसमैन की इमेज अपनी बेटी के दिमाग से मिटा पाए वो। जिसने वक्त रहते अपने बेटी का सौदा किया था।

कुछ ही महीनो में रागिनी, डॉक्टर रागिनी होने वाली थी।

याद था उसे अपना प्रॉमिस। जो उसने एडमिशन में हेल्थ चेकअप के वक्त वहां के फीमेल साइकैटरिस्ट से किया था, जो खुद एक इंडियन थी।
उनके बदौलत ही वह आज, बिना किसी रूकावट सीना तानकर इंटर्नशिप खत्म कर पा रही थी।

उसका सपना कुछ ही महीनो में पूरा होने वाला था।

किसी पर मर जाने से होती हैं मोहब्बत,
इश्क जिंदा लोगों के बस का नहीं
–गुलजार