गांव की सड़कों पर टूटी चप्पलों से लेकर भोपाल की तंग गलियों और सोनभद्र के पथरीले पहाड़ों की हवा खाते-खाते मुंबई की लोकल में अपनी पसलियां तुड़वाने तक के सफ़र में न जाने कितने लम्हें थे जब सब हार जाने का मन किया, खुद को महीनों तक किराए के कमरे में बंद रखा, कभी लगातार गिरते वज़न की चिंता नहीं आई, और बदलते शहरों के साथ साथ पसंदीदा इंसानों के खो जाने की प्रक्रिया भी चलती रही ।2017 के बाद से कभी भी हिंदी विषय को स्कूल या कॉलेज में नहीं पढ़ा लेकिन हिंदी साहित्य ने कभी खुद से अलग